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सुकुमाल मुनि की कथा

प्राचीन समय की बात है उज्जयिनी नगरी में सेठ सुरेन्द्र दत्त रहा करते थे । उनकी पत्नी का नाम यशोभद्रा था । उनके पास इतनी सम्पत्ति थी कि राज भण्डार भी उनके समक्ष खाली नजर आता था परन्तु सेठ के कोई पुत्र नहीं था । इस कारण वह हमेशा ही चिंतित और परेशान रहा करते थे । एक समय उनके नगर में एक अवधिज्ञानी मुनि आये । सेठ की पत्नी ने उनसे पूंछा महाराज हमारे घर में क्या कोई पुत्र अथवा पुत्री का जन्म होगा अथवा नहीं और क्या हमारा वंश आगे चलेगा अथवा नहीं ।

मुनिराज ने अवधिज्ञान से जान कर सेठानी को बतलाया कि धैर्य रखो कुछ ही समय के उपरांत तुम्हारे यहां एक पुत्र जन्म लेगा परन्तु उस समय तुम्हारे ऊपर एक विपदा भी आयेगी । पुत्र का मुख देखते ही तुम्हारे पति मुनि दीक्षा ले लेगें । तुम्हारा वह पुत्र भी जब कभी किसी मुनि के समागम में आयेगा तो वह भी घर त्याग कर मुनि दीक्षा ले लेगा । यह सुन कर सेठानी को अत्यंत प्रसन्नता हुई और साथ ही चिन्ता और भय भी सताने लगा ।

कुछ ही दिनों के उपरांत यशोभद्रा गर्भवती हुईं । उन्होनें अपने गर्भ की बात किसी को ज्ञात नहीं होने दी । वह घर के एक कोने में बैठी रहतीं और अपने पति से भी इस प्रकार बातें करतीं थी कि कहीं उनको गर्भ की बात पता न चल जाय । नौ माह व्यतीत होने के उपरांत उसने अपने दिव्य भूमिग्रह (जमीन के अन्दर के घर) में एक देदीप्यमान भाग्यशाली पुत्र को जन्म दिया । सेठानी ने पुत्र होने की बात भी किसी को नहीं बतायी । उनकी एक विश्वासी नौकरानी ही सारी देख-रेख करती थी । एक दिन जब वह नौकरानी सेठानी के प्रसूतिवस़्त्रों को धोने के लिये जलाशय पर गयी थी तब एक ब्राह्मण ने उसे ऐसा करते हुये देख लिया । उसने विचार किया कि यदि सेठ जी को पुत्र रत्न प्राप्त होने की बधाई दी जायेगी तो उसे काफी धन प्राप्त होगा । ऐसा सोच कर उस ब्राह्मण ने सेठ को बधाई देते हुये कहा कि आपके महान् पुण्योदय के कारण आपको पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है कृपया मेरी बधाई स्वीकार करें । ब्राह्मण के मंॅुह से यह शुभ समाचार सुन सेठ जी को अत्यंत प्रसन्नता हुई । उन्होनें उस ब्राह्मण को काफी धन दिया और सेठानी के पास जाकर पुत्र के मुख को देखा । पुत्र का मुख देखने के पश्चात् सेठ जी को अचानक वैराग्य उत्पन्न हो गया । उन्होनें मन में विचार किया कि धन लक्ष्मी सड़े हुये तृण के समान है और ऐसा सोचते हुये उन्होनें उसी समय वन में जाने की ठान ली । सेठ जी ने समस्त सम्पदा को छोड़ कर वन की ओर प्रस्थान किया तथा मुनि दीक्षा ग्रहण की । इस प्रकार सेठानी को सुख के साथ ही दुःख की घड़ी भी देखनी पड़ी ।

सेठानी ने सुकुमाल का सुन्दर मुख देख कर संतोष कर लिया और सोचने लगीं कि कम से कम उनका पुत्र तो उनके साथ है । अब वह ऐसा प्रयास करेगीं कि सुकुमाल का समागम किसी मुनि से न हो सके । उन्होनें उसका लालन- पालन बड़े लाड़ प्यार से किया । सुकुमाल बालक द्वितीया के चन्द्रमा के समान अत्यंत सुन्दर, नेत्रों को आनन्द देने वाला कांति समूह के गुणों के साथ बढ़ने लगा । परन्तु सुकुमाल की माता को हमेशा ही चिन्ता लगी रहती । वे हमेशा ही प्रयासरत रहतीं कि कभी भी उसको मुनिश्री के दर्शन न हों । सेठानी ने उसके खेलने की समस्त व्यवस्था घर पर ही कर दी थी । जब सुकुमाल यौवन की दहलीज पर पहॅंुचा तो सेठानी ने उसका विवाह कर दिया । घर के बाहर पहरा लगा दिया कि कोई व्रती-त्यागी मुनि घर के भीतर न आने पाये जिससे सुकुमाल उनके दर्शन न कर सके ।

एक बार एक व्यापारी एक बहुमूल्य रत्नयुक्त कम्बल बाजार में बेचने आया । कम्बल में बहुमूल्य रत्न जड़े थे । रत्नयुक्त कम्बल सबसे पहले व्यापारी राजा के पास ले गया और उसे खरीदने की प्रार्थना करने लगा परन्तु राजा ने उसे नहीं खरीदा । इस पर व्यापारी सेठानी के पास पहुंचा । सेठानी ने सुकुमाल के लिये उस कम्बल को खरीद लिया । सुकुमाल का शरीर बहुत ही कोमल था अतः जब उन्होनें उस कम्बल को ओढ़ा तो रत्न उनके चुभने लगे । इस पर उन्होनें कम्बल हटा दिया । इस पर सेठानी ने उस कम्बल की जूतियां बनवा कर सुकुमाल की पत्नी को दे दीं । एक बार एक जूती को एक चील उठा ले गयी और उसे राजा के घर गिरा दिया । राजा ने बहुमूल्य रत्नयुक्त जूती को देख कर आश्चर्य किया कि उसके राज्य में ऐसा कौन धनिक है जो रत्नयुक्त जूतियां पहनता है । राजा पता लगा कर सुकुमाल से मिलने स्वयं आया । सेठानी ने अपने भवन में राजा को आता देख बड़े समारोह पूर्वक उनका स्वागत किया । राजा ने सुन्दर युवक सुकुमाल को देखकर बड़ी प्रसन्नता पूर्वक उसे अपने साथ बैठा लिया । सेठानी ने राजा की दीपक से आरती की और उस पर मंगलिक सरसों बरसायी । दीपक का प्रकाश निकट देख कर सुकुमाल के नेत्रों से पानी आ गया और आसन पर पड़ी सरसों उसके चुभने लगी, जिससे वह इधर-उधर हिलने लगे । राजा ने इसका कारण सेठानी से पूंछा । सेठानी ने उत्तर दिया कि सुकुमाल का पालन -पोषण रत्न आदि के शीतल प्रकाश में हुआ है, दीपक के उष्ण प्रकाश से इसके नेत्रों में जल आ गया है तथा कुर्सी पर पड़ी सरसों इसको चुभ रही है इस कारण यह आसन बदल रहा है । राजा यह सुनकर तथा सुकुमाल की कोमलता की बातें सुनकर आश्चर्यचकित हो गया ।

एक बार गणधराचार्य, जो सुकुमाल के मामा थे और अवधिज्ञानी थे, विहार करते उज्जयिनी आये और सुकुमाल के भवन के पास एक बाग में ठहर गये । अवधिज्ञान से उन्होनें सुकुमाल की आयु अत्यंत अल्प जानकर रात्रि के शान्त वातावरण के समय उन्होनें संसार की दशा का वर्णन उच्च एवं मीठे स्वर में करना आरम्भ कर दिया । संसार की दशा का वर्णन सुनते ही सुकुमाल को जाति स्मरण हो गया । उन्हें अपने पूर्व भवों की घटनाओं का ज्ञान हो गया और वैराग्यभाव धारण कर विरक्त मन से सोचा कि यह संसार दुःखों की खान है । इसमें किंचित सुख नहीं है । ऐसा सोच कर निर्णय किया कि प्रातः होते ही मुनिदीक्षा ग्रहण कर लूंगा । उन्होनें पगड़ी आदि कपड़ों को जोड़कर एक लम्बा रस्सा बनाया और अपने कमरे की खिड़की में बांध कर उसके सहारे भवन के पीछे की ओर उतर कर सीधे गुणधराचार्य के पास पहुंच गये । गुणधराचार्य ने कहा - वत्स तेरी आयु केवल तीन दिन ही शेष है अतः शीघ्र ही अपना कल्याण करो । गुणधराचार्य की बात सुनकर सुकुमाल ने अपने शरीर के समस्त आभूषण आदि वहीं उतार कर मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली और वन में जाकर तल्लीन होकर तपस्या करने लगे ।

सुकुमाल के कोमल शरीर में वहां पड़ी हुई कंकडियां चुभने लगीं और पैरों से खून की धारा बहने लगी किन्तु उन्होनें इस पर कोई ध्यान नहीं दिया । वे तल्लीनता से तपश्चरण में लगे रहे । एक गीदड़ी अपने बच्चों के साथ भोजन की तलाश में उस जंगल से जा रही थी । उसने खून की बूंदों को चाटते हुये आगे बढ़ना शुरु किया और अन्त में वह सुकुमाल मुनि के निकट पहुंच गयी । सुकुमाल मुनि आत्मध्यान में मग्न थे । वह गीदड़ी पूर्व भव में सुकुमाल की भाभी थी । सुकुमाल ने पूर्व भव में उसको पैर मारा था उसी समय उसने बदला लेने का संकल्प किया था । गीदड़ी को पूर्व भव में लिये गये संकल्प का ध्यान आ गया और वह अत्यंत क्रोधित होकर सुकुमाल मुनि के पैर खाने लगी । उसके बच्चे भी सुकुमाल मुनि का पैर खाते रहे । सुकुमाल मुनि आत्मध्यान में इतने मग्न थे कि उन्हें इस वाह्य क्रिया का कोई अभास नहीं हुआ । तीन दिन के बाद वह अपने मानव शरीर को त्याग कर सोलहवें स्वर्ग में जा पहुंचे ।


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